शहर में लगे हैं इश्तहार कई मेरी नजरें ढूँढ़ती रहीं मगर कहीं न मिला आदमी को चिरंजीवी बनाने का वादा कोई नहीं दे रहा है। सब कहीं होड़ लगी है आपस में जड़ें खोदने की ललकार है सर्वत्र अब भी मेरे इस शहर के लोग निश्चिंत हो खड़े हैं मुझे हैरानगी है... विवशता भी!
हिंदी समय में सुमित पी.वी. की रचनाएँ
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